वैष्णव जन तो तेने कहिये’ : नरसी भगत | Vaishnav people are like that only: Narsi Bhagat.

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वैष्णव जन तो तेने कहिये जे पीड़ परायी जाणे रे। वैष्णव जन तो तेने कहिये जे पीड़ परायी जाणे रे। पर दुख्खे उपकार करे ??

वैष्णव जन तो तेने कहिये जे पीड़ परायी जाणे रे। वैष्णव जन तो तेने कहिये जे पीड़ परायी जाणे रे। पर दुख्खे उपकार करे तोये मन अभिमान ना आणे रे। नामक भजन जिसे विश्व और भारत के लाखों लोगों द्वारा गांधी जी के सबसे प्रिय भजन के रूप में साझा किया जाता है। भारत में जिसे एक अनधिकृत राष्ट्रगान का स्थान और सम्मान प्राप्त है। उस भजन के रचयिता पन्द्रहवी सदी के अग्रणी संत और गुजराती भाषा के कवि नरसिंह मेहता थे, जिन्हे नरसी मेहता या नरसी भगत के नाम से भी जाना जाता है। वह वैष्णव हिंदू धार्मिक परंपरा के कवि थे। वह चार शताब्दियों से अधिक समय तक गुजरात के "आदि कवि" या अग्रणी कवि के रूप में एक पूजनीय व्यक्तित्व रहे ।

'वैष्णव जन तो' भक्त नरसी मेहता की रचना थी। यह साबरमती आश्रम में नियमित रूप से गाए जाने वाले भजनों में से एक था। गांधीजी ने उन्हे (अनुसूचित जाति /जनजाति ) को ‘हरिजन’ नाम दिया  जहां 'हरि' का अर्थ है भगवान, 'जन' का अर्थ है लोग और इस प्रकार 'हरिजन' का अर्थ है "भगवान के लोग। ऐसा लगता है कि गांधीजी ने इस शब्द को गुजरात के एक कवि नरसिंह मेहता से उधार लिया है, जिन्होंने अपने भक्ति गीतों में सबसे पहले हरिजन शब्द का इस्तेमाल किया था ।

गुजराती साहित्य के आदि कवि संत नरसी मेहता का जन्म 1414 ई. में जूनागढ़ (सौराष्ट्र) के निकट, तलाजा ग्राम में एक नागर ब्राह्मण परिवार में हुआ था। माता-पिता का बचपन में ही देहांत हो गया था। वह 8 साल की आयु तक बोल नहीं पाते थे। कहा जाता है कि एक वैष्णव संत के आशीर्वाद से उन्हें अपना वाणी  वापस मिल गयी थी। उनका पालन पोषण उनकी दादी जयगौरी ने की। इसलिए अपने चचेरे भाई बंशीधर के साथ रहते थे। अधिकतर संतों की मंडलियों के साथ घूमा करते थे और 15-16 वर्ष की उम्र में उनका विवाह मानेकबाई से हो गया।

कोई काम न करने पर भाभी उन पर बहुत कटाक्ष करती थी। एक दिन उसकी फटकार से व्यथित नरसिंह गोपेश्वर के शिव मंदिर में जाकर तपस्या करने लगे। मान्यता है कि सात दिन के बाद उन्हें शिव के दर्शन हुए और उन्होंने कृष्ण भक्ति और कृष्ण दर्शनों का वरदान मांगा। इस पर द्वारका जाकर रासलीला के दर्शन हो गए। अब नरसिंह का जीवन पूरी तरह से बदल गया। प्रबुद्ध और परिवर्तित मेहता अपने गांव लौटे, अपनी भाभी के पैर छुए और उनका अपमान करने के लिए धन्यवाद दिया।

वे हर समय कृष्णभक्ति में तल्लीन रहते थे। उनके लिए सब बराबर थे। छुआ-छूत वे नहीं मानते थे और हरिजनों की बस्ती में जाकर उनके साथ भजन कीर्तन किया करते थे। इसके बिरादरी ने उनका बहिष्कार तक कर दिया, पर वे अपने विचार से नहीं डिगे नहीं। मेहता अपनी पत्नी और दो बच्चों, एक बेटे के साथ गरीबी में रहते थे, जिसका नाम शामलदास और एक बेटी कुंवरबाई था।  हरिजनों के साथ उनके संपर्क की बात सुनकर जब जूनागढ़ के राजा ने उनकी परीक्षा लेनी चाही तो कीर्तन में लीन मेहता के गले में अंतरिक्ष से फूलों की माला पड़ गई थी। निर्धनता के अतिरिक्त उन्हें अपने जीवन में पत्नी और पुत्र की मृत्यु का वियोग भी झेलना पड़ा था। पर उन्होंने अपने योगक्षेम का पूरा भार अपने इष्ट श्रीकृष्ण पर डाल दिया था। 

अपने जीवन के बाद के चरण में, वह मंगरोल चले गए, जहां, 79 की आयु में, उनकी मृत्यु हो गई । मंगरोल स्थित श्मशान को 'नरसिंह नू श्मशान' कहा जाता है, जहां गुजरात के सबसे प्रसिद्ध बेटों में से एक का अंतिम संस्कार किया गया था। जिस नागर समाज ने उन्हें कभी बहिष्कृत किया था अंत में उसी ने उन्हें अपना रत्न माना और आज भी गुजरात सहित उन्हे पूरे देश में श्रद्धा और सम्मान के साथ याद किया जाता है। स्तुत्य, सच्चा वैष्णव वही है, जो दूसरों की पीड़ा को समझता हो। दूसरे के दु:ख पर जब वह उपकार करे, तो अपने मन में कोई अभिमान ना आने दे। जो मानव जीवन का मूलमंत्र है।

(हेमेन्द्र क्षीरसागर, पत्रकार व लेखक, बालाघाट, मप्र)

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